इन्द्रधनुष इंडिया
शुक्रवार, 4 जून 2010
और फूल बना दो
मुझे चूमो
और फल बना दो
मुझे चूमो
और बीज बना दो
मुझे चूमो
और वृक्ष बना दो
फिर मेरी छांह में बैठ, रोम-रोम जुड़ाओ।
मुझे चूमो
हिमगिरि बना दो
मुझे चूमो
उद्गम सरोवर बना दो
मुझे चूमो
नदी बना दो
मुझे चूमो
सागर बना दो
फिर मेरे तट पर धूप में निर्वसन नहाओ।
मुझे चूमो
शीतल पवन बना दो
मुझे चूमो
दमकता सूर्य बना दो
फिर मेरे अनन्त नील को
इन्द्रधनुष-सा लपेट कर मुझे में विलय हो जाओ।
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना-
मंगलवार, 18 मई 2010
जैसी नेतागिरी है जी वैसी अफसरशाही है
सिर्फ झूठ की पैठ सदन में सच के लिए मनाही है
चारों ओर तबाही भइया
चारों ओर तबाही है.
संविधान की ऐसी-तैसी करने वाला नायक है
बलात्कार, अपहरण, डकैती सबमें दक्ष विधायक है
चोर वहां का राजा है
सहयोगी जहां सिपाही है.
चारों ओर तबाही है.
जो कपास की खेती करता उसके पास लंगोटी है
उतना महंगा ज़हर नहीं है जितनी महंगी रोटी है
लाखों टन सड़ता अनाज है
किसकी लापरवाही है.
चारों ओर तबाही है.
पैरों की जूती है जनता, जनता की परवाह नहीं
जनता भी क्या करे बिचारी, उसके आगे राह नहीं
बेटा है बेकार पड़ा
बिटिया अनब्याही है.
चारों ओर तबाही है.
जैसी होती है तैय्यारी वैसी ही तैय्यारी है
तैय्यारी से लगता है जल्दी चुनाव की बारी है
संतों में मुल्लाओं में
भक्तों की आवा-जाही है.
चारों ओर तबाही भइया
चारों ओर तबाही है.
कैलाश गौतम
मंगलवार, 9 मार्च 2010
उठता हाहाकार जिधर है
उसी तरफ अपना भी घर है
खुश हूं -- आती है रह-रहकर
जीने की सुगन्ध बह-बहकर
उसी ओर कुछ झुका-झुका-सा
सोच रहा हूं रुका -रुका-सा
गोली दगे न हाथापाई
अपनी है यह अजब लड़ाई
रोज़ उसी दर्ज़ी के घर तक
एक प्रश्न से सौ उत्तर तक
रोज़ कहीं टांके पड़ते हैं
रोज़ उधड़ जाती है सीवन
'दुखता रहता है अब जीवन'
केदारनाथ सिंह
('अकाल में सारस'नामक कविता-संग्रह से )
शनिवार, 6 मार्च 2010
साजन आए, सावन आया
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया ।
धरती की जलती साँसों ने
मेरी साँसों में ताप भरा,
सरसी की छाती दरकी तो
कर घाव गई मुझपर गहरा,
है नियति-प्रकृति की ऋतुओं में
संबंध कहीं कुछ अनजाना,
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया ।
तुफान उठा जब अंबर में
अंतर किसने झकझोर दिया,
मन के सौ बंद कपाटों को
क्षण भर के अंदर खोल दिया,
झोंका जब आया मधुवन में
प्रिय का संदेश लिए आया-
ऐसी निकली ही धूप नहीं
जो साथ नहीं लाई छाया ।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया ।
घन के आँगन से बिजली ने
जब नयनों से संकेत किया,
मेरी बे-होश-हवास पड़ी
आशा ने फिर से चेत किया,
मुरझाती लतिका पर कोई
जैसे पानी के छींटे दे,
ओ' फिर जीवन की साँसे ले
उसकी म्रियमाण-जली काया ।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया ।
रोमांच हुआ जब अवनी का
रोमांचित मेरे अंग हुए,
जैसे जादू की लकड़ी से
कोई दोनों को संग छुए,
सिंचित-सा कंठ पपीहे का
कोयल की बोली भीगी-सी,
रस-डूबा, स्वर में उतराया
यह गीत नया मैंने गाया ।
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं,
साजन आए, सावन आया ।
हरिवंशराय बच्चन
रविवार, 14 फ़रवरी 2010
श्री गणेश जीं को कोटि-कोटि नमन।
महाभारत ग्रंथ की रचना के साथ वेद्व्यास जी का नाम जुडा हुआ है, पर इस बात की चर्चा बहुत कम ही होती है उसके लेखक तो भगवान श्री गणेश जी ही थे। भगवान ब्रह्मा जी के आदेश पर श्री वेदव्यास से ने यह ग्रंथ लिखने के लिये ही गणेश जी का स्मरणं किया था। वह प्रकट हुए तो वेदव्यास जी ने उनसे आग्रह किया कि मैं महाभारत की कथा बोलता जाऊंगा और आप लिखते जाईयेगा।
श्री गणेश जी बहुत प्रसंन हुए और बोले-’ मैं लिखता जाऊंगा पर मेरी कलम नहीं रुकना चाहिये।’
वेदव्यास जी ने उनकी बात मान ली साथ ही कहा-’आप भी सोच समझ कर लिखियेगा।’आज हम जिस श्रीमदभागवत गीता का जो विश्व व्यापी प्रभाव देख रहे हैं वह महाभारत ग्रंथ का ही एक भाग है और कहना चाहिये कि सबसे महत्वपूर्ण भी है। भारत के विद्वान मनीषियों ने इसे सोच-विचारकर महाभारत से प्रथक करने का निर्णय किया क्योंकि इसमें शाश्वत सत्य का जो उदघाटन किया गया है उसको देखते हुए आवश्यक भी था।
श्रीमदभागवत गीता की चर्चा आज पूरे विश्व में होती है और यही कारण है कि भगवान श्री क्रुष्ण का नाम जहां घर-घर में जाना जाता पर कई लोगों को तो यह भी पता नहीं कि इस पवित्र ग्रंथ को विश्व में स्थापित करने का श्रेय श्री गणेश जी की कलम को भी है। महर्षि वेदव्यास का नाम तो फ़िर भी चर्चा में आता है पर श्री गीता के नाम से तो कभी श्री गणेश जी का नाम जोडा ही नहीं जाता।
महाभारत जैसा इतना बृहद ग्रंथ लिखने के बावजूद उस पर अपना नाम तक उन्होने अंकित नही किया। भगवान श्री कृष्ण ने जिस निष्काम भाव से कर्म करने का जो उपदेश दिया उसके एक प्रतीक श्री गणेश जी भी है, आमतौर से ऐसी चर्चा बहुत कम लोग करते है। श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को जो ज्ञान दिया वही महर्षि वेद्व्यास जी ने बोला और गणेश जी ने लिखा केवल इसलिये ही उनको बुद्धि का देवता नहीं माना जाता बल्कि उन्होने कई ऐसे उदाहरण भी प्रस्तुत किये जिससे इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि मनुष्य की बुद्धि ही उसकी पहचान है। अपनी बुद्धि से वह जैसे कर्म करेगा वैसी ही उसकी मानव समाज में पहचान होगी। जब देवताओं में सर्वश्रेष्ठ कहलाने के लिये पूरी दुनिया की परिक्रमा करने की होड लगी तब वह बहुत देर तक वहीं अपने माता-पिता के पास बैठे रहे और फ़िर उठे और उनकी परिक्रमा कर वहीं बैठ गये और विजेता घोषित किये गये। इसी कारण उन को पूजा में सबसे पहले स्थान मिला। कभी उनके क्रोध कराने या युद्ध में भाग लेने की चर्चा भी नही आती। अन्य देवताओं द्वारा युद्ध में भाग लेने और अपनी शक्ति के द्वारा उसमें विजय प्राप्त करने के ढेर सारे प्रसंग है पर श्री गणेश जी बौद्धिक् शौर्य से सारे संसार को पल भर में जीतने के पराक्रम के कारण सारे विश्व में शुभ का प्रतीक बन गये। अगर उनके चरित्र को देखें तो मनुष्य में बुद्धि तत्त्व की कितनी प्रधानता हो सकती है इसका ज्ञान मिलता है
अगर हम देखें तो वास्तव में मनुष्य अपनी ही बुद्धि के अनुसार ही अच्छे और बुरे कर्म करता है। इसी कारण हमेशा ही यह कहा जाता है कि अपनी बुद्धि में अच्छे विचार और संस्कार धारण करो तो स्वतः ही अच्छे काम करोगे। हमने देख होगा कि वैसे तो धनवान, उच्च पदासीन लोग सदैव सम्मान पाते हैं पर जब विपत्ति आती है तब सलाह्-मशविरा के लिये बुद्धिमान लोगों की शरण ली जाती है और वह उसका निवारण भी करते हैं। यही कारण है कि बौद्धिक शौर्य के प्रतीक भगवान श्री गणेश जी विघ्न निवारक भी माना जाता है और इसलिये कोई शुभ कार्य प्रारम्भ होने से पहले उनकी स्तुति की जाती है। मन में यह भाव रहता है कि चूंकि कोई भी काम बौद्धिक चातुर्य के बिना सम्पंन नही हो सकता इसलिये श्री गणेश जी का स्मरणं किया जाता है।गणेश चतुर्थी के इस पावन पर्व पर हमें यह याद रखना चाहिये कि शिव्-पार्वती पुत्र श्री गणेश महाराज न केवल शुभ के प्रतीक हैं बलिक उनसे यह प्रेरणा भी मिलती है कि अपने जीवन का लक्ष्य अगर पाया जा सकता है तो वह केवल बौद्धिक शौर्य, धैर्य और संयम से पाया जा सकता है। अपनी सफ़लता के लिये किसी को गिराने, अपनी प्रतिष्ठा बढाने के लिये दूसरे की निंदा करने और अपनी उपलब्धि की लिये दूसरे का अधिकार छीनने की कोई आवश्यकता नहीं है। साथ ही सहजता, सरलता और शांति से अपना कार्य संपन्न करने की प्रेरणा भी मिलती है।
भगवान गणेश सत्त्व, रज और तम-इन तीनों गुणों के ईश माने जाते हैं। गुणों का ईश ही प्रणवस्वरूप ‘ॐ’ है। प्रणवस्वरूप ‘ॐ’ में गणेश जी की मूर्ति सदा स्थित रहती है। अत: ‘ॐ’ गणेश जी की प्रणवाकार मूर्ति है, जो वेद मन्त्र के प्रारंभ में रहती है। इसीलिये ‘ॐ’ को गणेश जी की साक्षात मूर्ति मानकर वेदों के पढने वाले सबसे पहले ‘ॐ’ का उच्चारण करते हैं। श्री गणेश जीं को मेरा कोटि-कोटि नमन।